संविदाकर्मी और आउटसोर्स कर्मचारी बगावत पर उतरे! बोले– हमें ठेका नहीं, हक चाहिए… अब चुनाव में होगा हिसाब
Contract Workers News: भारत में रोजगार का संकट कोई नया नहीं है, लेकिन संविदा और आउटसोर्सिंग के जरिए काम कर रहे कर्मचारी आज भी सबसे अधिक उपेक्षित वर्ग बने हुए हैं. ये कर्मचारी सरकारी कर्मचारियों के समान ही काम करते हैं, वहीं जिम्मेदारियां निभाते हैं, लेकिन अधिकारों और सुविधाओं के नाम पर उन्हें लगभग नजरअंदाज कर दिया जाता है. लगातार मेहनत, ईमानदारी और निष्ठा के बावजूद उन्हें कभी स्थायित्व नहीं मिलता, न ही सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा. यही कारण है कि आज सबसे ज्यादा परेशान वही हैं जो सरकार की जड़ में काम कर रहे हैं संविदाकर्मी और आउटसोर्स कर्मचारी ।
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राष्ट्रीय और राज्य योजनाओं की रीढ़, फिर भी उपेक्षा
देश के अलग-अलग हिस्सों में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम), जीविका, मनरेगा और अनेक राज्य स्तरीय योजनाएं चल रही हैं, जिनकी नींव इन्हीं संविदा और आउटसोर्सिंग कर्मचारियों के भरोसे टिकी हुई है. लेकिन विडंबना यह है कि इन योजनाओं को ज़मीन पर सफल बनाने वाले कर्मचारियों की आवाज न तो सत्ता के गलियारों में सुनाई देती है, न ही प्रशासन के दफ्तरों में. इन कर्मचारियों का आरोप है कि जब भी वे अपनी समस्याएं लेकर नेताओं या अफसरों के पास जाते हैं, उनकी शिकायतें टाल दी जाती हैं या ठंडे बस्ते में डाल दी जाती हैं. इसके परिणामस्वरूप इनका शोषण वर्षों से जारी है।
वोट की ताकत से बदलेंगे किस्मत
अब इन कर्मचारियों ने ठान लिया है कि वे अपनी चुप्पी तोड़ेंगे और अपनी मांगों को लेकर वोट की ताकत का इस्तेमाल करेंगे. बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र यह वर्ग निर्णायक भूमिका में आ गया है. आंकड़ों के अनुसार, हर विधानसभा क्षेत्र में करीब 25,000 से 30,000 वोट इन कर्मचारियों और उनके परिवारों के हैं. अब वे उसी दल को वोट देंगे जो अपने घोषणापत्र में संविदा और आउटसोर्सिंग कर्मचारियों से जुड़ी समस्याओं को प्रमुखता से शामिल करेगा और उसका ठोस समाधान करेगा।
संविदा कर्मचारियों की प्रमुख समस्याएं
संविदा और आउटसोर्सिंग कर्मचारियों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उनके लिए आज तक कोई नियामक आयोग नहीं बना है. न तो उनके लिए कोई स्पष्ट नीति तय की गई है और न ही उनके हितों की रक्षा करने वाला कोई मंच है. इस वजह से उनकी आवाज़ संसद या विधानसभा जैसी लोकतांत्रिक संस्थाओं में कभी नहीं गूंजती।
दूसरी समस्या यह है कि वे राज्य सरकार के नियमित कर्मचारियों की तरह ही कार्य करते हैं, लेकिन उन्हें उनकी तरह की सुविधाएं नहीं दी जातीं. महंगाई भत्ता, यात्रा भत्ता, पेंशन जैसी मूलभूत सुविधाएं उनसे कोसों दूर हैं।
तीसरी अहम समस्या यह है कि अधिकांश आउटसोर्स कर्मचारियों को कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) और भविष्य निधि (ईपीएफ) जैसी महत्वपूर्ण सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ नहीं मिलता।
चौथी समस्या वेतन से जुड़ी है. कर्मचारियों को समय पर वेतन नहीं दिया जाता और कई बार उसमें अनुचित कटौती भी कर दी जाती है, जिससे उनका रोजमर्रा का जीवन प्रभावित होता है।
पांचवीं बड़ी शिकायत यह है कि उन्हें आयुष्मान भारत जैसी महत्वपूर्ण स्वास्थ्य योजना का भी लाभ नहीं दिया जाता, जिससे बीमार पड़ने पर उन्हें निजी खर्च पर इलाज कराना पड़ता है।
आंदोलन की राह पर कर्मचारी, सरकार की परीक्षा तय
इन तमाम समस्याओं से तंग आकर अब संविदा और आउटसोर्सिंग कर्मचारी खुलकर सामने आ गए हैं. उन्होंने स्पष्ट कहा है कि वे अब चुप नहीं बैठेंगे और लोकतांत्रिक तरीके से अपना विरोध दर्ज कराएंगे. उनका यह रुख आने वाले चुनावों में सरकारों की दिशा और दशा तय कर सकता है. अब देखने वाली बात यह होगी कि सरकार कब तक चुप्पी साधे रहती है और क्या इन लाखों कर्मचारियों की आवाज़ को सुना जाता है या फिर एक बार फिर चुनावी वादों में इन्हें नजरअंदाज कर दिया जाएगा।
संविदा और आउटसोर्सिंग कर्मचारियों का यह आंदोलन सिर्फ नौकरी की मांग नहीं है, बल्कि यह सम्मान, स्थायित्व और बराबरी के अधिकार की लड़ाई है. अगर सरकार समय रहते नहीं चेती, तो यह मुद्दा सिर्फ धरना-प्रदर्शन का नहीं, बल्कि चुनावी नतीजों का फैसला करने वाला भी बन सकता है।